बावन साल पहले भी सजने-संवरने का कोई ज्यादा चाव नहीं था सुधा को.... 
पर मुझे बड़ा शौक था उसे सजे-धजे देखने का... 
उसके चेहरे पर बिखरे, खुले, लहराते बालों को अपनी उंगलियों से हटाना मुझे बड़ा भाता था पर वो अक्सर बालों को बाँध कर ही रखती.... 
मोगरे के गजरे तो पूछो मत कितने पसंद थे मेरी सुधा को.... 
कभी-कभार ला दिया करता था....
और वो हर दफ़ा बस यही बोलती, "इसकी क्या जरूरत थी....
फिर बड़े करीने से बालों में बाँधकर इठलाती हुई पूछती, "कैसी लग रही हूं मोहनजी.....

और मे कह देता, "बहुत प्यारी.....

बावन साल बाद भी आज ये मुझे उतनी ही प्यारी लगती है ....
तो क्या हुआ जो कभी पूरे घर में फिरकी की तरह घूमने वाली आज वॉकर के सहारे घिसटती सी है जिसका दिल मुझे देख के धड़का करता था आज पेस मेकर के सहारे धड़कने को मजबूर है.... 
इसके वो कमर छूते बाल, अब कन्धे को भी नही छू पाते..... अच्छे नहीं लगते ....
अब मुझे इसके चेहरे पर बिखरे छोटे-छोटे बाल.... 
खीझ उठती है ये.... अपनी लाचारी पर....
उंगलियाँ भी टेढ़ी हो चुकीं हैं इसकी.... 
अब उन्हें मैं ही बाँध देता हूँ।

आज कुछ दिखा बाज़ार मे....सो ले आया इसके बालों के वास्ते....
लिफ़ाफ़े में से निकाल कर दिया...तो आँखो में आँसू भर लाई बोली, "इसकी क्या जरूरत थी.... 
कुछ कहे बिना लगा दिया मैने....
अपने कंपकपाते हाथों से इसके बालों मे...
गजरा नहीं ........हेयर बैंड....

टेढ़ी-मेढ़ी उंगलियों से अपने सिर को टटोलती हुई बोली, "कैसी लग रही हूं....

डबडबाई आँखें किये मैनें भी हमेशा की तरह इस बार भी सच्ची-सच्ची बोल दिया... "बहुत प्यारी....
एक सुंदर रचना..
#दीप...🙏🙏🙏